Thursday, May 13, 2010

नीड़

उड़कर आये थे
बहुत दूर
भरे मन से
अपनों को पीछे छोड़
एक नई दुनियां बसाने
तम्हारे लिए .

तिनका-तिनका जोड़
भीड़ से अलग
बनाया था
एक नीड़:
भीतर कोमल,बाहर कठोर.
डाला था उसमें
तुम सबों का बचपन,
चुगकर लाते थे दाने,
चुगाते थे तुम्हें प्यार से
स्वयं रहकर भी खाली पेट
कई-कई बार,
सींचते थे
तुम सबका तन-मन
दुलार से .

अपने डैनों पर
ओढ़ लेते थे सूरज,
झेल लेते थे
बारिस का झमकता पानी
तुम्हें बचाने के लिए
ताकि
तुम बनो
अपना सबल कल,
हमारा सहारा बनों.

यह हमारा सपना था
उम्मीदों भरा.
जब तुम जवान हुए
बन गए
नदी की मचलती धार
और
हम सराहते रहे
तुम्हारा अविरल प्रवाह .

लेकिन
तुमने
हमदोनों को
बना डाला "दो" तीर
जो देखते रहे
एक-दूसरे को
हसरत भरी निगाहों से
मिलन की धूमिल आस लिए.
तुमने बाँट दिया हमें ,
हमारा साझा अस्तित्व ,
बनाकर रख दिया हमें
यादों का ढेर.

बेहतर होता
तुम हमें "दो" न करते,
छोड़ देते हमें
हमारे हाल पर
अपने सपनों के साथ .

2 comments:

  1. ek dard jo jana pahchana sa hai,fir bhi bar-bar apne aap ko doharata sa hai.sunder rachana.

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  2. " लेकिन
    तुमने
    हमदोनों को
    बना डाला "दो" तीर"
    aapki kavita ki sabse sasakt panktiya...sunder rachna.. bhav se bandhi hui...

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