Wednesday, May 5, 2010

गाँव की सड़क

बचपन में
जब पिताजी की
उँगलियाँ पकड़े
जाता था अपने गावं
तो देखता था
टूटी सी खाट पर
लेटे हुए
बुढिया दादी की तरह
अपनी
जानी-पहचानी
सड़क को
पूरी तरह जीर्ण-शीर्ण
कृशकाय ,
कातर निगाहों से
निहारते
अपने शरीर में पड़े
अनगिन
छालों को
जो समय ने
दिए थे उसे ।

आज भी मैं
अपने बच्चों की बाहें थामे
जाता हूँ
अपने गावं
उसी सड़क पर चलकर ।
आज भी वह
वैसे ही पड़ी है
छालों से बने
अपने घावों को
सहलाती

और
कर रही है
इन्तजार
किसी के आने का
जो
उसकी जवानी
भले ही न लौटाए
पर उसके घावों पर
मरहम तो लगा जाये,
उसकी साँसों को
कुछ उम्र तो दे जाए ।

2 comments:

  1. उसकी जवानी
    भले ही न लौटाए
    पर उसके घावों पर
    मरहम तो लगा जाये,
    उसकी साँसों को
    कुछ उम्र तो दे जाए ।...
    smritiyon se nikal kar layee gai sunder rachna

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  2. saanson ko kuch umra mil jaye ......bahut bhawpoorn

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