Friday, October 8, 2010

उसका दर्पण

नहीं निहारती
अब वो
अपने-आपको,
अपने रूप,
अपने श्रृंगार को
आईने में
बार-बार,
दिन में
कई-कई बार
जबसे
चाँद सी बिटिया आई है
उसके घर।

बस निहारती रहती है
उसका फूल सा
गुलाबी चेहरा
क्योंकि अब
वही हो गया है
दर्पण उसका ।

8 comments:

  1. वात्सल्य भाव् की अदभुद रचना... बहुत सुंदर कविता..

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  2. वाह वाह! सच यही तो माँ की ममता की चरम सीमा है जब उसकी बेटी ही उसका आईना बन जाती है।

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  3. बस निहारती रहती है
    उसका गुलाबी चेहरा
    क्योंकि अब
    वही हो गया है
    दर्पण उसका

    सही कहा ...बिटिया में ही अपनी छवि दिख जाती है ..

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  4. जबसे
    चाँद सी बिटिया आई है
    गोद में
    भूल गई है वह
    निहारना
    अपने रूप, अपने श्रृंगार को
    आईने में


    बस
    निहारती रहती है
    उसका फूल-सा चेहरा
    जैसे अब
    वही है उसका
    दर्पण

    राजीव भाई आपकी कविता के भाव बहुत अच्‍छे हैं। कविता भी अच्‍छी है। पर अगर मैं इसी बात को कहता तो कुछ इस तरह। बधाई। मैंने परिवर्तन क्‍यों किया है। बता सकता हूं। गुलाबी कहने से एक तरह का रंगभेद नजर आता है। इसलिए फूल कहिए। दर्पण देखना उसने छोड़ा नहीं है,भूल गई है। क्‍योंकि वह स्‍वाभाविक है।

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  5. कविता के भाव बहुत अच्‍छे हैं

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  6. चाँद जब धरती पर उतर आया हो तो आईने में क्या निहारना.

    सुंदर कविता.

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  7. ये बात तो मुझे बहुत पसंद आई मेरे दिल के बहुत करीब मुझे भी याद आ गया वो सब कुछ आभार
    मुझे भी याद आ गयी
    " मेरी बेटियां"


    इस दुनिया में पहली बार जब आयीं

    वो नन्हीं सी

    उंगलियाँ।


    आने से उनके यूँ लगा फूल बरसा रहीं थीं,

    वादियाँ

    जिस तरफ प्यार से उठती थीं,

    वो नन्हीं सी

    उंगलियाँ।


    आने को उनके पास तरसतीं थीं,

    तितलियाँ.


    गालों पे मेरे जब प्यार से जब चलती थीं,
    वो नन्हीं सी
    उंगलियाँ।
    आखों में उनकी होती थी गज़ब की वो

    शोखियाँ।

    गोदी में मेरे सर रख के मचलती थीं जब,


    वो नन्हीं सी उंगलियाँ।

    पल भर में ही खो जाती थीं वो नाज़ुक सी,

    सिसकियाँ।

    हाथों में अपने थाम के,

    वो नन्हीं सी उंगलियाँ।

    मैं देखती थी अपलक उनकी,

    अठखेलियाँ।

    कितनी जल्दी जवान हो गयी ,

    वो नन्हीं सी उंगलियाँ।

    मेरी बाँहों में बाहें डाल कर अब गिराती हैं

    बिजलियाँ।

    हमको साथ देख कर अब उठतीं हैं,

    न जाने कितनी ही उंगलियाँ।

    कहती हैं, वो देखो जा रही हैं कुछ हमउम्र सी ,

    उंगलियाँ।

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