Wednesday, August 26, 2009

महानगर की मौत पर मत रोना

किसी महानगर की मौत पर मत रोना ,
जश्न मानना जश्न कि पहाड़ पत्थर नही बनेंगे,
बादल आवारा नही भटकेंगे अपने घर,
और धरती "पाताल-कब्र" नही बनेगी ।
मरता शहर ,,
चाहे कोलकाता हो या दिल्ली या फ़िर लन्दन या पेरिस
मरेगा ही
क्योंकि यहाँ सब"प्यासे " हैं ।
पानी कहाँ है?
पानी नहीं है
पत्थर है ,सूखे पेड़ हैं सोना-चांदी सब है
कारें हैं ,उनमें बैठे लोग हैं ,भीड़ भरी बसें हैं,
बस नहीं है तो सिर्फ़ पानी ।
हरे-भरे पहाड़ नहीं हैं,नदियाँ नहीं हैं ,
हाँ,नदियों सरीखे नालों की भरमार है ।
मुझे यहाँ प्यास बहुत लगती है ,चाहतें बढ़ जाती हैं,बढती जाती हैं ,
विस्मृति बहुत होती है और होता रिश्तों को भूलने का भय ।
रोना है तो पहाडों की मौत पर,पेडों के कत्ल पर रोओ
और रोओ अपनी बर्बादी पर ।
जरा गौर से देखो यह महानगर नही है,
ये तो तुहारे विश्वाशों की ,तुम्हारे संस्कारों की कब्र है ।
यहाँ तुम्हारा शरीर ,तुम्हारी चाहत है ,
बस सिर्फ़ तुम नही हो
क्योंकि "पानी" नहीं है -न तुम्हारे भीतर ,न तुम्हारे बाहर ।
यह निर्णय तो तुम्हारा होगा--
पहाड़ चाहिए या फ़िर सूखे पेडों के ढेर ,
हरे-भरे जंगल ,नदी ,झरने या तपता रेगिस्तान।

2 comments:

  1. rajeev ji aab tak ki aapki behtreen rachna... ye rachna... dil ko jhakjhoor ke rakh dee... khatm hote gaon... shahron ka failta jaal aur moh bhi... inn sab par sateek tippani hai... kahan tak jayenge hum... aur kahan le jayengi ye suvidhayen... suvidhaon ka moh.... kahin ke nahi reh jayenge hum... naa hi apni dharti... aaj ke paripekshye mein... bahut hi marmik... sateek kavita.... badhai... bahut bahut....

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  2. पानी अब आंखों में नहीं रहा
    तो पीने के पानी की कौन कहे ?
    प्‍यास धन की नहीं बुझ रही
    लबालब पानी में क्‍यों डूब मरे ?

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