मैं पूछती हूँ
क्यों नहीं जा पाते तुम
हमारे तन के पार?
क्यों नहीं लाँघ पाते
रीति-रिवाजों से से नियंत्रित
परम्पराओं की देहरी
जहाँ तिरता है जीवन-मूल्य
पानी पर तेल सा
जीवन-मृत्यु के बीच
सृजन के धागों से बंधकर
झूलते हैं सारे रिश्ते
आजादी की अनदेखी कर
क्यों नहीं देख पाते उसकी आँखों में
छलकता प्यार,उमड़ती करुणा
अपने और औरों के लिए.
तन के माध्यम से ही तो होता है
ये सारा व्यापार ,
अनगिन भावों का निरंतर संचार.
क्यों नहीं रख पाते याद
उसका व्रत,उपवास,
मुसीबत की घड़ी में
जागना सारी-सारी रात
तुम्हारे भले के लिए
मां,बहन और पत्नी बनकर.
क्यों नहीं देखते जननी को
प्रकृति सा लेटा अपने आस-पास
अलग-अलग रूप और परिधान में.
क्यों नहीं खोलते मन का नाजुक द्वार
जहाँ तन में लहराता है
बहन का प्यार राखी बनकर
माँ का दुलार
कौशल्या बनकर,यशोदा बनकर ,
तुम मचलते हो बनकर
राम और श्याम.
इसी में बसी है राम की सीता ,
सावित्री सत्यवान की.
पाषाणी अहिल्या
नहीं है केवल एक तन
जिसे किसी ने धोखा दिया
किसी ने किया प्रताड़ित .
वह जूझती रही प्रश्नों के द्वंद्व से
टूटा ह्रदय लिए,
बिखरे अरमानों के साथ.
करती रही एक ऐसे शरीर में वास
जो समझ नहीं पाया
अपना अपराध
आजतक.
ये तो आज भी है एक पहेली
क्यों कोई बन जाता है युधिष्ठिर ,
लगा देता है द्रौपदी का शरीर
अपने हर दाव पर?
क्यों दु:शाशन ठहाके लगता है
अपने कृत्य पर?
क्यों आज भी मौन हैं पितामह?
क्यों ली जाती है अग्नि परीक्षा
इस देह की बार-बार लगातार?
क्यों आज भी जन्म लेते हैं
परमहंस और गाँधी जैसे लोग
हमारे बीच .
एक पाशविक वृति का वाहक बनकर ,
दूसरा मानवता का उपासक बनकर?
राजा रवि वर्मा की तसवीरें बोलती हैं
बाहर का सच ,
खींचती हैं अपनी ओर
आकर्षण की डोर ले,
हुसैन की तस्वीरें देती है
भावनाओं को हवा,
पाती हैं तन पर न्योछावर
हजारों मीठे बोल.
कोई कहाँ झांकता है पोर्ट्रेट के भीतर
जहाँ धड़कता है एक कोमल ह्रदय,
पलती है जीवन को दिशा देनेवाली सोच.
यह सत्य है अकाट्य
कोई धरा को नहीं समेट सकता है
अपनी बाँहों में,
पर, एक छोटा सा स्नेहपाश
कर सकता है धरती-आकाश एक.
शरीर नहीं है कोई सड़क
चलने के लिए,
है एक किताब जीवन की
पढ़ने के लिए.
एक घर
जिसके दरवाजे खुले रहते हैं
सदा
शरण देने के लिए.
प्यार के सागर की लहरों पर
अठखेलियाँ करती एक नाव है यह
हमेशा बढ़ती हुई
किनारे की ओर.
इसलिए, आओ
आगे बढ़ो
पूरी संवेदना से निभाओ इसका साथ.
यहीं मिल जायेगी तुम्हे पूरी धरती,
पूरा आकाश,
आँखों में उम्मीद का सूरज.
पढो अपना मन
कि पढ़ पाओ उसका मन,
जाकर खड़े हो जाओ उसके पास
सुन पाओगे
उसके भीतर की आवाज
इच्छाओं के पार से आती हुई .
उसका शरीर है सूरज
चक्कर लगाते है जिसके चारो ओर
हजारों सम्बन्ध
अलग-अलग कक्षाओं में रहकर.
सदा रहती है वह
उन्हें सीने से लगाये
प्रोटान बनकर.
वाह! नारी के अलग अलग रूप होते हुये भी उसकी अनेकता मे एकता को बखूबी परिभाषित किया है…………एक बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteउसका शरीर है सूरज
ReplyDeleteचक्कर लगाते है जिसके चारो ओर
हजारों सम्बन्ध
अलग-अलग कक्षाओं में रहकर.
सदा रहती है वह
उन्हें सीने से लगाये
प्रोटान बनकर.
kuch kahne se upar, bahut upar
उसका शरीर है सूरज
ReplyDeleteचक्कर लगाते है जिसके चारो ओर
हजारों सम्बन्ध
अलग-अलग कक्षाओं में रहकर.
सदा रहती है वह
उन्हें सीने से लगाये
प्रोटान बनकर.
kitna scientific shabd diya aapne proton ban kar..:)
bahut khub....sambandho par ek pyari si rachna...
राजीव जी!
ReplyDeleteसृष्टि की जननी की इतनी वृहत एवम् सुंदर व्याख्या कहीं देखी नहीं पहले.. अभिभूत हुआ... रिश्तों की केमिस्ट्री बताकर, आपने मुझे मेरी भूली केमिस्ट्री याद दिला दी.
मेरी ओर से धन्यवाद!!
बहुत सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति ! इतनी खूबसूरत रचना के लिये बधाई एवं शुभकामनाएं !
ReplyDeleteवह जूझती रही प्रशनों के द्वंद्व से
ReplyDeleteटूटा ह्रदय लिए,
बिखरे अरमानों के साथ.
करती रही एक ऐसे शरीर में वास
जो समझ नहीं पाया
अपना अपराध
आजतक.....
क्या कहूँ ....निशब्द हूँ आपकी लेखनी पर ....
बहुत ही गहन और अद्भुत अभिव्यक्ति .....
हर वक्तव्य अकाट्य है ..बहुत सुन्दर और भावनाओं का अद्भुत संगम है ....इस प्रस्तुति के लिए आभार .
ReplyDeleteक्यों नहीं रख पाते याद
ReplyDeleteउसका व्रत,उपवास,
मुसीबत की घड़ी में
जागना सारी-सारी रात
तुम्हारे भले के लिए
मां,बहन और पत्नी बनकर.
ॠणानुबंध का बखूबी चित्रण, अद्भुत सम्वेदनाओ का प्रकटीकरण
यह सत्य है अकाट्य
ReplyDeleteकोई धरा को नहीं समेट सकता है
अपनी बाँहों में,
पर, एक छोटा सा स्नेहपाश
कर सकता है धरती-आकाश एक.
बहुत सशक्त संवेदनशील अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर
क्या कहूँ ....निशब्द हूँ आपकी लेखनी पर ....
ReplyDeleteबहुत ही गहन और अद्भुत अभिव्यक्ति .....
यही तो विडम्बना है स्त्री के साथ .....वह सृष्टि की वाहक है .......पूज्य है ........वह गौरी भी है और दुर्गा भी है .....ठीक हमारे जैसा ही प्रतिरूप भी देती है हमें ....हम पाकर अपना वंश-वाहक फूले नहीं समाते ....निकलते ही काम ...भूल जाते हैं सब कुछ ....करने लगते हैं उसका उपहास .......करने लगते हैं शक्ति की उपेक्षा ......फिर ....पराभव के क्षणों में पुनः करते हैं उसीकी उपासना .....हर बार की तरह .......हमसे बड़ा स्वार्थी और कौन हो सकता है भला ?
ReplyDeleteविस्तृत और संवेदनशील चित्रण, मानवीय सम्बन्धों का।
ReplyDeleteसंवेदनशील कविता। मन को छू गई। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteएक आत्मचेतना कलाकार
नारी तुम केवल श्रद्धा हो.
ReplyDeleteसबने अलग अलग ठंग से नारी से प्यार तो लिया !
ReplyDeleteपर उसकी झोली मै तो हर पल दर्द ही दिया !
हरेक ने उसके दामन को आंसुओ से ही भरा !
पर हर वक़्त उसने उसी घर का ख्याल किया !
कितना समर्पण है नारी शक्ति मै ,
देखो न हर एक पल ...............
इतना दर्द अपने आँचल मै समेटे रहती है !
फिर भी हर एक को प्यार बाँटती फिरती है !
काश इसको कोई समझ पाता !
तो इसका दामन भी खुशियों से भर जाता !
स्त्री के विभिन्न रूपों का उसे एक केंद्र मानकर रची गयी संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteकिसी पुरुष की कलम से स्त्रियों के लिए व्यक्त किया गया सम्मान हमेशा ही प्रभावित करता है ...
rajni N
ReplyDeleteto me
bhav bahut hi sarthak hai par kafi lambi ban gayi hai
rachna..................achha prabhav dalegi padhnewale k man mastisk
मन को छूने वाली ,दिल की गहराइयों से लिखी हुई भावना प्रधान कविता
ReplyDeleteराजीव जी,
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखते है। कविता में प्रयुक्त कुछ बिम्ब तो बहुत ही अच्छे हैं। कृपया अपना gmail address दें, ताकि आपसे सम्पर्क किया जा सके। आभार।
कविता जब दिल की गहराई से उपजती है तो रोमांचित कर देती है .सुन्दर कविता .
ReplyDeleteकेन्द्रक बलवान होता है । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
ReplyDeleteवाह... इतनी खूबसूरत और बेहतरीन रचना की तारीफ करने के लिए शब्द मेरे पास तो नहीं हैं...
ReplyDeleteबस एक त्रिप्ती है कि मैं भी ऐसा ही एक रूप हूँ...
dil ki baat ko dilo tak pahuchaane ka safal pryaas....
ReplyDeletebahut badhiya!
kunwar ji,
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
सदा रहती है वह
ReplyDeleteउन्हें सीने से लगाये
प्रोटान बनकर.
बहुत सुन्दर नूतन विम्ब प्रयोग!
संवेदनशील रचना!
गहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
आदरणीय बंधुवर राजीव जी
ReplyDeleteनमस्कार !
क्यों नहीं जा पाते तुम
हमारे तन के पार?
क्यों ? क्यों ?
बहुत सुंदर रचना है ।
क्यों नहीं खोलते मन का नाजुक द्वार
जहाँ तन में लहराता है
बहन का प्यार राखी बनकर
माँ का दुलार
कौशल्या बनकर,यशोदा बनकर ,
तुम मचलते हो बनकर
राम और श्याम
बहुत सरस और सुंदर !
ये तो आज भी है एक पहेली
क्यों कोई बन जाता है युधिष्ठिर ,
लगा देता है द्रौपदी का शरीर
अपने हर दाव पर?
क्यों दु:शाशन ठहाके लगता है
अपने कृत्य पर?
क्यों आज भी मौन हैं पितामह?
क्यों ली जाती है अग्नि परीक्षा
इस देह की बार-बार लगातार?
प्रागैतिहासिक संदर्भों को ले'कर उठाए गए प्रश्न आज भी प्रासंगिक हैं ।
कविता कुछ बड़ी अवश्य है, लेकिन बांधे रहने में सक्षम है ।
बहुत बहुत बधाई और आभार !
~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
prajyanp pandepragya
ReplyDeleteto me
तुम्हारे अहम् के साथ
बढ़ता रहा.......
तुम्हारे भीतर का खारापन
तुम जीते रहे
संगी से इतर
रश्मो-रिवाज में बंधकर
पुरुष और परंपरा बनकर
न जाने क्यों?
aapki ye anubhootiyan saraahneey hain aisee bhaawnaa ka sahyog aaj kii ladatii bhidatii stree ke liye dene ka shukriya evam badhaayi.
pragya
bahaut hi badhiya rachna...nari man..aur tan dono ko vyakhit karti hui...dono ki vyatha ko spast karti hui.... badhai itni badhiya rachna ke liye
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