ग़ुम हो रही हैं तारीखें,
ग़ुम हो रहे है
तारीखों में बसे चेहरे
जो हुआ करते थे खास.
अब तारीखों से
याद नहीं आते
गाँधी और नेहरू,
तारीखों से याद आता है
भयानक मंजर.
जब-जब याद आता है
9/11 और 26/11,
याद आता है
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर,
भारतीय संसद,
होटल ताज
और शिवाजी टर्मीनस,
ऐसे ही और कई अनगिन नाम .
अब नहीं याद आएँगी तारीखें
नहीं उभर पाएगा जेहन में
उसमें बसा कोई नाम,
कोई चेहरा,
बस होंगे दिन और रात.
शायद ही अब बन पाए
2 अक्टूबर ,14 नवम्बर
जैसी तारीखें ,
जिसमें आज भी बसे हैं
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ,
बच्चों के चाचा नेहरु।
तारीखों के आते ही
जो उभर आते हैं
मन में
त्योहारों की तरह.
इसके पीछे होता है
ढेर सारा समर्पण,
मानवता के प्रति ढेर सारा प्यार ।
आज हर तारीख में
जबरन घुसाए जा रहे हैं
मदर्स-डे,
फादर्स-डे,
वैलेंटाइन-डे
जैसी संज्ञाएँ
जिसमें नहीं होती तस्वीरें
समाज और जीवन को
दिशा देनेवालों की,
जीवन की राह में
उंगली थमाने वाले
मां की,बाबूजी की,
अपनों की।
बस एक ढेर होता है ,
अपने से लगते
पराये चेहरों का,
शहीदों का,नेताओं का,
जनता और जवानों का।
पहले
अपने कर्म,
सामाजिक सरोकारों से
जाना जाता था चेहरा
जो होता था
आम चेहरों से अलग.
आज तो सारे कर्म,
सारे धर्म
एक जैसे
इसलिए चेहरे भी एक जैसे,
आपस में मिलते-जुलते से।
ऐसे में कहाँ मिलेगा
एक अदद चेहरा
भीड़ का होकर भी
जो हो
भीड़ से अलग.
बहुत सुन्दर कविता, इतने सारे दिन घुसेड़कर सबका महत्व चौपट कर रख दिया है।
ReplyDeleteआदरणीय राजीव सर.. आपकी एक और बेहतरीन कविता.. तारीख के तारीख में बदलने के महत्त्व और कई तारीखों के महत्वहीन होने के बीच एक सुन्दर कविता.. संयोग है कि इस बीच ९/११ पर एक बेहतरीन कविता पढ़ रहा था.. आपकी साथ शेयर करता हूँ... मैथ्यू ओबेलु कि "अप ओन ९/११" शीर्षक की कविता बेहतरीन है..
ReplyDelete"
Hysteria,
a nation under siege.
The syndicates waiting the wings
from the east,
west,
Afghanistan,
Israel,
Pakistan,
Iran,
Russia,
England,
France,
America.
Bring the gods of New York to their knees
with the sound of a mean freight train that slices
through the silent brain of night.
Is this the voice of the great powers?
The western bankers?
The eastern sand soldiers of their ancestors that call us back to the night?
Is this the voice of the great families?
those Robber Barons
the Rockefellers,
the Bin Ladens,
The Fords,
the Mackeys,
the Windsors.
“What ever you do, don't let them know what you're doing. For God's sake, don't let the people know what's happening.”
OK, you of the great powers,
the world bankers,
the oil syndicates,
the great eastern czars,
You who fed on the brains and souls that are not your and never will be yours.
Is this the voice of the great world powers?
“And whatever you do, don't let the contra deals leak out.”
"
बहुत सही कहा है ...अब तारीखों के मतलब भी बदलने लगे हैं
ReplyDeleteइन तारीखों से खौफ होता है... बहुत डरावनी हो चुकी हैं ये तारीखें...
ReplyDeleteपहचान कौन चित्र पहेली को अभी भी विजेता का इंतज़ार ...
आज तो एक साथ दोकविताओं का आनंद आया।
ReplyDeleteआभार राजीव जी और आपके पलाश जी।
तारीखें भी राजनैतिक हो गई हैं, या कहें कि मार्केटिंग के युग में देखना पड़ता है कि कौन है मार्केटेबुल और उसके साथ चिपका देते हैं चेहरा और तारीख भी... देखिये ना, दो अक्तूबर के साथ बापू को तो याद कर लिया आपने भी और शास्त्री को गए भूल, और अभी गुज़रा तीन दिसम्बर.. ये किसे याद होगा कि भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति का था जन्मदिन..
ReplyDeleteजो बिकता है उसकी तस्वीर भी दिखती है और तारीख भी.. वैसे आपने अपनी कविता में भाव सुंदर ढंग़ से उकेरे हैं!!
बहुत ही खूबसूरती से लिखे हैं मन के भाव सच ही है अब तारीखों के मतलब बदलने लगे हैं
ReplyDelete... saarthak abhivyakti ... sundar rachanaa !!!
ReplyDeleteआज हर तारीख में
ReplyDeleteजबरन घुसाए जा रहे हैं
मदर्स-डे,फादर्स-डे,वैलेंटाइन-डे
जैसी संज्ञाएँ
जिसमें नहीं होती तस्वीरें
समाज और जीवन को
दिशा देनेवालों की,
जीवन की रह में
उंगली थमाने वाले
मां की,बाबूजी की,
अपनों की।
yahi banawtipan swabhawik bana liya hai adhikansh logo ne
prajyanp pandepragya to me
ReplyDeleteआपकी कविता बहुत सुन्दर लगी .....
veena srivastava to me
ReplyDeleteआपने सही कहा है लेकिन आज गांधी-नेहरू को केवल तारीखों में ही याद रखा जाता है .,...हां वो चेहरा मिलना मुश्किल है जो भीड़ का भी होकर भीड़ से अलग हो....बहुत अच्छे भाव...सुंदर रचना
vandana gupta to me
ReplyDeleteबिल्कुल सही कह रहे हैं आज तो ऐसे चेहरे खुदा ने बनाने बंद कर दिए हैं ............बेहद उम्दा प्रस्तुति
ekdam sahi kah rahe hain.
ReplyDeleteminakshi pant to me
ReplyDeletehows u ?
bahut hi khubsurat likha hai dost
thanx for it
सही कहा आपने... और इन तारीखों को मिटाने के लिए फ़िर उन दीवानों को वापस आना पड़ेगा...
ReplyDeleteशायद तभी ये चेहरे बदले जा सकेंगे...
परन्तु सिर्फ एक बात... मै Mother's Day/ Father's Day के खिलाफ नहीं हूँ... होने चाहिए ऐसे दिन जब हम सभी माता-पिता को wish कर सकें... चाहे वो हमारे माता-पिता हों या किसी और के, हैं तो आख़िर माता-पिताही...
" मै Mother's Day/ Father's Day के खिलाफ नहीं हूँ...
ReplyDeleteहोने चाहिए ऐसे दिन जब हम सभी माता-पिता को wish कर सकें"
पूजा जी,
आपके विचार से मैं पूर्णतः सहमत हूँ. मेरा तो बस इतना कहना है कि दिन को निर्धारित कर उसे सिर्फ रूढ़ कर देना सही नहीं है.बिना प्राण शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार तारीखें बनाकर जिस तरह आज लोग अपने फर्ज को पूरा समझ लेते हैं मैं उस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ. शहीद दिवस को ही लें, आप देखेंगी कि यह दिवस महज एक औपचारिकता बनकर रह जाता है.मेरा उस औपचारिकता से विरोध है,न कि किसी दिवस कि महत्ता से.शायद आप मेरी इस बात से सहमत होंगी. बेबाक मंतव्य के लिए आभार.
taarikhon ke maayne aur unme simta dard...
ReplyDeletesundar abhivyakti!
अब तारीखों से
ReplyDeleteयाद नहीं आते
गाँधी और नेहरू,
तारीखों से याद आता है
भयानक मंजर.
जब-जब याद आता है
9/11 और 26/11,
याद आता है
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर,भारतीय संसद,
होटल ताज और शिवाजी टर्मीनस,
ऐसे ही और कई अनगिन नाम
साफ और दो टूक बात,वाह वाह राजीव जी ,क्या कहने हैं
mini seth to me
ReplyDelete"तारीखों में बसे चेहरे"
wah bahut khoob.........aap bahut bahut accha likhte hain....
hardeep rana to me
ReplyDeletebahut hi badhiya......
bohot bohot badhiya likha hai, wakai, bohot kuch yaad aata hai....taareekhon ke chehre hote hain
ReplyDeleteबस इस भीड़ में सब कुछ खतम होता जा रहा है. सब भागमभाग में लगे हैं. अपनों को छोड़ते जा रहे हैं...गैरो के साथ कदम से कदम मिलाने की महत्वाकांक्षा में.
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