एक दिन
तुमने ही तो कहा था
सज-धज कर रहो
अच्छी लगती हो,
मन को भाती हो.
लेकिन
जब-जब मैं
सज-सवंर कर निकली
तुमने रोक दिया था
मुझे बाहर जाने से
न जाने क्यों?
तुमने ही कहा था
छोटे रखने को बाल,
आई-ब्रो बनवाने को.
शायद तुम्हें अच्छा लगता था
ये सब..........
अगले दिन जब खुले सिर
निकली घर से बाहर
तुमने रख दिया
साडी का आँचल
मेरे माथे पर
न जाने क्यों?
तुमने ही बड़े शौक से
खरीदा था मेरे लिए
टाप और जींस
पहनाया भी था मुझे
हुलसकर
लेकिन इसे पहनकर
मेरे बाहर जाने पर
हमेशा ऐतराज रहा तुम्हें
न जाने क्यों?
तुमने ही जिद करके
सिखाया था
मुझे गाड़ी चलाना
बड़े चाव से,
बनवाया था मेरा ड्राइविंग लाइसेंस,
तुम्ही ने कहा था एक दिन,
"आज गाडी तुम चलाओ.
मैं बैठूँगा तुम्हारी बगल में".
रियर-व्यू मिरर में देखा था मैंने
तुम्हारे चेहरे का बदलता रंग,
बदरंग होता हुआ
जब लोगों ने देखा था मुझे
न जाने क्यों ?
पति की चाहत
पुरुष की सोच का अंतर
उभर आया था
तुम्हारे चेहरे पर
शिकन बनकर .
तुम्हारी इच्छा थी मुझे सजाने की,
पर, नहीं जुटा पाए साहस
मेरे सौन्दर्य,
मेरी इच्छाओं को
मन के आईने के पार
देख पाने का,
न जाने क्यों?
जब-जब मैं
तुम्हारे सपनों को जीती
हकीकत के धरातल पर गिरकर
चूर-चूर हो जाते थे तुम्हारे सपने
अपने अहम् में तुम जीते रहे
सदा पुरुष बनकर
न जाने क्यों?
तुम्हारे अहम् के साथ
बढ़ता रहा.......
तुम्हारे भीतर का खारापन
तुम जीते रहे
संगी से इतर
रश्मो-रिवाज में बंधकर
पुरुष और परंपरा बनकर
न जाने क्यों?
बस इतना ही कहूँगा.. एक इमानदार कविता...
ReplyDeleteहकीकत की जमीन पर उगी हुई कविता है ये ......जादातर पुरुषो की यही मानसिकता है .....
ReplyDeleteसुंदर गुंथा है, पुरुष एकाधिकार मानसिकता को।
ReplyDeleteसार्थक रचना!! आभार
इसे पुरुष का अहम् नहीं कह सकते , पुरुष की वह दृष्टि है जो अन्य दृष्टियों को समझती है ...जिस सौंदर्य को वह देखना चाहता है , उसे सरेआम नहीं कर सकता और यह उसका डर भी नहीं , अपने प्यार के प्रति सुरक्षा है ...
ReplyDeleteबेहतरीन...अच्छा लगा.
ReplyDeleterashmi di ne sach kaha...:)
ReplyDeletehar purush apnee patnee ke liye pata nhi kyun surakshha kawach sa ban kar jeena chahta hai....beshak dikhne me ye AHAM jaisa lagta hai...par wastvikta me ye PYAR hai:)
rajeev ji...sach me aap jaise kavi ke soch ko naman!!!
पति के चेहरे पर चढ़ी पुरुष की नकाब ने वो न करने दिया जिसे पति ने अपनी पत्नी में देखना चाहा था. वह दिल से ऐसा चाहता हो नहीं वह सिर्फ सामंतवादी सोच से भयभीत हो अपनी कामना को सफल नहीं कर पता.
ReplyDeleteयह शायद पुरुष मानसिकता है उसके अहं को बहुत जल्दी ठेस लगती है और वह पति से एक सामान्य पुरूष बन जाता है....बहुत खूबसूरत भावमयी रचना....
ReplyDeleteएकदम खरी -खरी कह डाली .सुन्दर कविता .
ReplyDeleteआदरणीय दीदी,आपकी विवेचना से मुझे हमेशा ही एक नई दिशा मिलती है.मैं इतने सूक्ष्म अंतर को न देख पाया और न ही समझ पाया. मार्गदर्शी टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत आभार.
ReplyDelete... ab kyaa kahen ... sach bayaan kartee rachanaa ... behad prasanshaneey lekhan ... bahut bahut badhaai !!!
ReplyDeleteतुम्हारे अहम् के साथ
ReplyDeleteबढ़ता रहा.......
तुम्हारे भीतर का खारापन
तुम जीते रहे
संगी से इतर
रश्मो-रिवाज में बंधकर
पुरुष और परंपरा बनकर
न जाने क्यों?
प्रायः दिखने वाली विडम्बना का सजीव चित्रण
गुड्डोदादी(शेइला) (:)
ReplyDeleteराजीव जी
आशीर्वाद
आपकी कविता में आधुनिक और पुराने विचार
आप अपनी कविताओं को ऑरकुट या फेसबुक पर छापिये अधिक लोग पढ़ सकेंगे
धन्यवाद के साथ गुड्डो दादी चिकागो अमरीका से से
aruna kapoor To: rajiv kumar
ReplyDeleteएक सामान्य पुरुष की मानसिकता को कागज पर उतारा है आपने!..क्या स्त्री को अपने सवालों के जवाब मिल पायेंगे?
2010/12/21
muflis dk To: rajiv kumar
ReplyDeleteन जाने क्यों ....
किसी
मन की कशमकश को
लफ़्ज़ों में उकेरने की कोशिश
सहज सी नहीं लग पाती
न जाने क्यों ...
काव्य , आत्म केन्द्रित रूप ओढ़ कर
साधारणतः , शिल्प से दूरी बना लेता है
न जाने क्यों .....
लेकिन
ये एक सार-सा ही जान पड़ा ...
पति की चाहत
पुरुष की सोच का अंतर
उभर आया था
तुम्हारे चेहरे पर
शिकन बनकर .
भरोसा हुआ सा लगता है
किसी तरह से अन्यथा नहीं लेंगे
न जाने क्यों.... !!
'दानिश' भारती
आपके व्लाग पर पहली बार आया हूँ बहुत सार्थक रचना पढने को मिली
ReplyDeleteएक सामान्य पुरुष की मानसिकता , सुन्दर कविता ...
सुंदर ढंग से आपने मानसिक विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteराजीव जी! दोहरे मानदंडों कोदार्शाती एक सच्ची और ईमानदार अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteमानव मन के विरोधाभासों की सटीक अभिव्यक्ति . एक नए अंदाज़ में कविता अच्छी लगी .
ReplyDeletemini seth to me
ReplyDeletewah bahut khoob....kya likha hai apne...
gehri baat....antarman ko jakjhor deti hai
...बहुत खूबसूरत भावमयी रचना....
ReplyDeletevandana gupta to me
ReplyDeleteबस इसी से तो बाहर नही आ पाता ………………ये दंभ ही उसे उससे जुदा करता है और किसी का कभी बनने ही नही देता……………एक बेहतरीन अभिव्यक्ति……………बहुत सुन्दर भाव संयोजन्।
जीवन का एक सत्य ये भी है लोग दूसरों को देख कर अपने घर में भी वैसा ही करना चाहते है पर अन्दर बैठा डर उन्हें बार बार रोक लेता है पर मेरे घर पर ऐसा नहीं है
ReplyDeleteशायद संदर्भों के साथ बदलते अनर्थ हो रहे अर्थ.
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना...
ReplyDeleteवाकई पुरुष की सोच को आपने इतने अच्छे से प्रस्तुत कर दिया...
वो खुद सौंदर्य से प्रभावित होता है, उसे और उभारने की कोशिश भी करता है...
परन्तु दूसरों की सोच भी जानता है, इसलिए उसे बाहरी लोगों के सामने ले जाने से डरता है...
Ranjana to me
ReplyDeleteकितनी गहनता से आपने नारी मन और स्थिति को भांपा है..विस्मित हूँ देखकर...
बस निशब्दता की स्थिति है अभी तो क्या कहूँ,सटीक कुछ सूझ नहीं रहा...
इस सुन्दर मर्मस्पर्शी,विचारणीय और प्रभावोत्पादक रचना के लिए आपका बहुत बहुत आभार...
सादर,
रंजना
सच कहा तुमने........
ReplyDeleteदेखना तुम्हें सजा-धजा
अच्छा लगता है मुझे,
पर वह दृष्टि
ज़ो मेरे पास है तुम्हारे लिए
कहाँ रखी औरों के पास ?
यकीन करो
बहुत फर्क है
घर की
और घर से बाहर की दुनिया में.
सब कुछ नहीं है वैसा
जैसा देता है दिखाई.
और फिर ........
ज़ो वचन दिया था मैनें
तुम्हें
भरे समाज में
लेते समय सार फेरे
उन्हें पूरा करना है मुझे ही
और सिर्फ मुझे ही
इसलिए पति को बनना पड़ता है
एक पुरुष भी.
मैं नहीं चाहता
जब भी निकलो तुम घर से बाहर
भेदती रहें तुम्हें
लोगों की घूरती आँखों से निकलीं एक्स-रे
और शर्म से तुम्हें छिपना पड़े मेरे पीछे
और सच कहूं .......
कोई पति देख नहीं सकता
अपनी पत्नी को
बनते हुए
एक नुमाइश की चीज़
न जाने क्यों ....न जानें क्यों !
"पर वह दृष्टि
ReplyDeleteज़ो मेरे पास है तुम्हारे लिए
कहाँ रखी औरों के पास ?
यकीन करो
बहुत फर्क है
घर की
और घर से बाहर की दुनिया में."
कौशलेन्द्र जी. मेरी कविता को एक नए और दृष्टिकोण देखने के लिए बहुत-बहुत आभार.
एक सच वह भी जो आपने देखने की कोशिश की.बहुत अच्छा लगा.आपकी नजर को हार्दिक नमन. .
आदरणीय राजीव जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम
बहुत दिनों से आपके ब्लॉग लिंक को ढूंढ़ रहा था ...आज मिला तो बहुत ख़ुशी हुई .... आपकी कविता तो मैंने आपके द्वारा भेजे गए मेल से पढ़ ली थी ..प्रशंसनीय अभिव्यक्ति ...शुक्रिया
बढ़िया विश्लेषण!
ReplyDeleteराजीव जी विषय और भाव कि दृष्टी से काफी सशक्त है और मध्य वर्ग की इस मानसिकता से इंकार नहीं किया जा सकता . इसके लिये आप बधाई के पात्र है.
ReplyDeleteआपकी यह खूबसूरत रचना कैसे पढने से रह गयी ....अभी आंच पर देखा तो यहाँ पढने चली आई ...एक पुरुष की मानसिकता को बाताती मनोवैज्ञानिक रचना ..
ReplyDeleteI feel, besides other things, there is also a feeling of insecurity and possessiveness in the husband's mind. Not that it is ego or male dominance all the time.
ReplyDeleteA very nice poem, most of us will identify with !