Wednesday, November 10, 2010

खेत

खेत
जो कभी देते थे
अन्न , जीवन.
होते थे
संयुक्त परिवार का
आधार,
हमारी पहचान
आज स्वयं ही
लहूलुहान है

अब तो
देने से अधिक
लेने लगे हैं
जीवन
क्योंकि
छोटे-छोटे टुकड़ों में
बंटने लगे हैं खेत .

इन टुकडों के साथ ही
टूटने लगे हैं रिश्ते ,
बँटने लगे हैं दिल,
बदलने लगा है
आपसी व्यवहार.

खेतों से होकर गुजरनेवाले रास्ते
जो कभी ले जाते गाँव ,
मिलाते थे अपनों से
अब मुड़ने लगे हैं
शहर की ओर.

हर फसल से
जुड़े होते थे त्यौहार,
शादी-ब्याह के मौके पर
जुटा करता था
समूचा परिवार,
भूले-बिछड़ों से
हुआ करती थी
मुलाकात.

अब तो खेतों में
खड़ी है
टीस की फसल
लहलहाती सी
जिसके बीज को
अपनों ने बोया हैं,

हम आज भी
नहीं समझ पाए है
हमने क्या पाया,
हमने क्या खोया है.

अब तो खेत बन गए हैं
हमारा धुंधला दर्पण
जहाँ देखकर भी हम
अपनी बर्बादी को
कहाँ देख पाए हैं.

7 comments:

  1. जीवन देने वाले तत्व अब जीवनी शक्ति सोखने वाले बन गये हैं।

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  2. अब तो खेतों में
    खड़ी है
    टीस की फसल
    लहलहाती सी
    जिसके बीज को
    अपनों ने बोया हैं,

    जीवन दर्शन से लबरेज़ कविता……………खेत के माध्यम से ज़िन्दगी की हकीकतों से रु-ब-रु करा दिया।

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  3. सच ही है खेत अब जीवन लेने लगे हैं कितने ही किसान आत्महत्या जो कर लेते हैं. बहुत गहरी बातें, सिर्फ खेत ही नहीं समूचा समाज आ गया इस घेरे में.

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  4. खेत के माध्यम से बहुत गहरी बातें...

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  5. हम आज भी
    नहीं समझ पाए है
    हमने क्या पाया,
    हमने क्या खोया है.

    हम देख समझ सब रहे हैं लेकिन इतनी बर्बादी के बाद भी शहर की दिखावटी चकाचोंध बावरा किये रखती है और मृगतृष्णा का काम करती है.

    सुंदर विषय और सुंदर कथन.

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  6. अब तो खेतों में
    खड़ी है
    टीस की फसल
    लहलहाती सी
    जिसके बीज को
    अपनों ने बोया हैं,
    बहुत सुंदर राजीव जी। खेत के माध्यम से आपने जीवन के दर्शन को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया है।

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  7. लाजवाब रचना …………भावों को सम्पूर्णता प्रदान की है।

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