कभी देखा है
पक्षियों को
करते हुए परवाज
बिलकुल उन्मुक्त,
बिलकुल स्वछन्द
पर,रखे हुए नजर
अपने घोंसलों पर
जिससे मिलता है उन्हें
ऊँचाइयों को छूने का
निर्द्वंद्व हौसला.
कभी देखा है
उन्हें पंख फैलाये,
झुण्ड के झुण्ड
अपनों के संग
आखिरी प्रहर
सूरज के करीब से
गुजरकर
क्षितिज के पार जाते हुए,
नीले आसमान की
ऊँचाइयों में
ग़ुम हो जाते हुए .
कभी देखा है
उन्हें जल में
करते किलोल
फडफडाकर अपने पंख
औरों के संग,
भूलकर सारे अवसाद .
कभी देखी है
सागर दीवानी
नदिया
उसकी आतुरता,
उसका बेचैन पानी,
जिसके हर मौज पर
लिखी है
मिलन की कहानी,
पहाड़ों से उतरकर भी
रहती है जिसकी नजर
ऊंचे पहाड़ों पर.
मैं भी चाहती हूँ
किसी में समा जाना,
उसे अपना बना जाना,
होकर उम्मीदों पर सवार
ढूँढती हूँ संबंधों की धार
ताकि सब के साथ
बहती जाऊं निर्बाध
दोनो किनारा साथ लिए .
परन्तु ,
मैं तो समंदर हूँ,
मुझे तो सबको
अपने में समाना है,
अपना बनाना है
उनका ही होकर
रह जाना है......
बहुत सुन्दर और प्रेरित करती कविता.. पिछली कविताओं की तुलना में यह कविता अधिक अच्छी बनी है..
ReplyDeleteवाह! बेहद उन्मुक्त रचना बिल्कुल नदिया की रवानी सी।
ReplyDeleteसच अगर सागर कि तरह सोचें और विशाल बनें तो कितना अच्छा है
ReplyDeleteपरन्तु ,
ReplyDeleteमैं तो समंदर हूँ,
मुझे तो सबको
अपने में समाना है,
अपना बनाना है
उनका ही होकर
रह जाना है......
meri vishalta ke to charche hain na
मुझे तो सबको
ReplyDeleteअपने में समाना है,
अपना बनाना है
उनका ही होकर
रह जाना है.....bahut achchhi chaht hai aapki....aap is vishalta ko hasil kare aur use sambhal payee yahi kamna hai....
......प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeleteखूबसूरत एहसास ....बहुत अच्छी लगी रचना ..
ReplyDeleteसमुन्दर बनने में खारा होना पड़ता है, नदिया बन समुन्दर में समा जाने में आनन्द है।
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