Sunday, November 14, 2010

देखता रहता हूँ मैं........

मैं
निश्चल
निःशब्द
अकेला खड़ा
देखता रहता हूँ
उसे
और
वह
होकर
निर्विकार
शब्दों के खोल में
डालता रहता है
बोल
खट्टे-मीठे
भाव भरे,
हँसते-खिलखिलाते से,

एकाग्रमन
रचता रहता है
अपना संसार,
अपनी धरती,
अपना आकाश,
अपने सूरज,चाँद,सितारे
विश्वामित्र की तरह.


मैं
एक किनारे
स्थिर खड़ा
देखता रहता हूँ
सृजन का अद्भुत खेल,
शब्दों में समाये
ऊँचे-ऊँचे पहाड़,
झर-झर झरते झरने,
कल-कल बहती नदिया,
उनसे निःसृत होता संगीत.

देखता हूँ
भावों को
शब्दों के घरोंदों में
लुका-छिपी का खेल
खेलते हुए,
अपने आगे-पीछे
दौड़ लगाते ,
उधम मचाते हुए
चुपचाप
बस एक माध्यम बनकर
क्योंकि मैं
दुनियांदारी में उलझा,
भौतिकता के भंवर में
डूबता-उतराता
एक अदना सा इन्सान जो हूँ .

पर,
उसे
इससे क्या ?
मेरी परेशानियों से परे
वह
चुपचाप
मेरे प्रवाहमान भावों को
शब्दों में पिरोता रहता है,
बुनता रहता है
सृजन जाल .

मैं तो बस देखता रहता हूँ,
देखता रहता हूँ
रचनाकार का
निरंतर जारी खेल

10 comments:

  1. बहोत ही सुंदर रचना.........

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  2. पर,
    उसे
    इससे क्या ?
    मेरी परेशानियों से परे
    वह
    चुपचाप
    मेरे प्रवाहमान भावों को
    शब्दों में पिरोता रहता है,
    बुनता रहता है
    सृजन जाल .
    adbhut bhaw sanyojan

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  3. कर्ता की कृति निराली है,
    खिलौने में जान डाली है।

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  4. सुन्दर कविता ! रचनाकार के भीतर झाँकने का सफल प्रयास.

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  5. बहुत बढ़िया झक्कास प्रस्तुति...... बालदिवस पर बधाई

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  6. बेहद उम्दा प्रस्तुति।
    बाल दिवस की शुभकामनायें.
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (15/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  7. बहुत मनोहारी अद्भुत चित्रण.आपको व रचनाकार को शत शत नमन

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  8. एक अच्छी सूफियाना रचना
    गूंगे के गुड जैसी ......

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