Saturday, November 13, 2010

जब तय नहीं थी मंजिलें

जब तय नहीं थी
मंजिलें,
नहीं बन पाया था
कोई लक्ष्य.

चाहे दिन हो या रात
हाथ नहीं आता था
आसमान
चाँद,सितारे भी चलते थे
मेरे आगे-आगे.

बहुत भरमाता था सूरज,
कई-कई रास्ते दिखाकर
छोड़ जाता था
एक अनजाने,अनचाहे
चौराहे पर.

आज
जब तय हो गई है
मंजिलें,
बन गई है
भटकाव से दूरी.

दिखता है आसमां
क्षितिज पर
धरती से मिलता हुआ,
दिखती है नदी,
सागर में गोते लगाती हुई ,
नहाती हुई .

उग रहा है
सोने जैसा सूरज
उम्मीदों भरा
पूरब में.

मैं छू लूँगा उसे
एक दिन
ये विश्वास जगाता है,
मुझे मेरी मंजिल सा
नजर आता है.

आज वह भी
मेरे साथ-साथ चलता है,

9 comments:

  1. मैं छू लूँगा उसे
    एक दिन
    ये विश्वास जगाता है,
    मुझे मेरी मंजिल सा
    नजर आता है.

    आज वह भी
    मेरे साथ-साथ चलता है,
    बहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना
    सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

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  2. उग रहा है
    सोने जैसा सूरज
    उम्मीदों भरा
    पूरब में.
    सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई

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  3. मंजिल का पता हो तो उसे पाना आसान होता है ...एक लक्ष्य सामने होता है ...अच्छी प्रस्तुति

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  4. कई-कई रास्ते दिखाकर
    छोड़ जाता था
    एक अनजाने,अनचाहे
    चौराहे पर.
    लक्ष्य को पाने का हौसला जाहिर है।

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  5. भविष्य दूर है पर पहुँच में है।

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  6. अच्छी प्रस्तुति!सुंदर अभिव्यक्ति !!

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  7. मंजिल को पा लेने की जब एक आशावाली सोच आ ही गयी तो मानो सब कुछ पा ही लिया....फिर दूरियां कहाँ.

    सुंदर प्रस्तुति.

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  8. आशा है .,... उम्मीद है ... जीवन कि उमंग है आपकी रचना में ..

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