अपने ही शहर में
अजनबी हो तुम,
तुम्हारी बातें ,
तुम्हारे दिन,
तुम्हारी रातें .
क्योंकि
सफलता की चाह में
निकल गए हो
बहुत आगे,
फंस गए हो
प्रतिस्पर्धा के जाल में,
हो गए हो अपनों से दूर
स्वयं को भूलकर .
कैद होकर रह गए हो
अपने ही बनाये
घरोंदे में,
छूट गया है
खुला आसमान,
चाँद-सितारों का साथ
जबसे तुम्हें
अपनी रौशनी का
भरोसा हो गया है .
तभी तो
सब हैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे आस-पास
बस तुम खो गए हो,
तुम्हारा वजूद खो गया है
चाहत की भीड़ में.
समय आ गया है
करो खुद ही
खुद की तलाश
रिश्तों को ढूँढ़ो
अपने आस-पास.
बना लो उसे
अपनी चाहत,
कट जायेगा
जीवन का सफ़र
आराम से .
अजनबी से परिचय अच्छा लगा! सुन्दर कविता !
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत ख्याल्……………उम्दा रचना।
ReplyDeleteajnabi tum jane pahchane se lagte ho.......:)
ReplyDeletepyari rachna...!
तभी तो
ReplyDeleteसब हैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे आस-पास
बस तुम खो गए हो,
तुम्हारा वजूद खो गया है
चाहत की भीड़ में.
सच कहा है और बहुत खूबसूरती के साथ...बहुत अच्छी रचना
आपका ब्लॉग फॉलो भी कर लिया...
ReplyDeleteसच में आज का आदमी आपने आप से तथा अपनों से कटता चला जा रहा है. और अजनबी हो गया है. सुन्दर रचना. बधाई
ReplyDeleteसच है हम अपने आप से ही खोते जा रहे हैं चलो एक मुहीम चलायें अपने आपको खोज के बताएं
ReplyDeleteसब दिन एक सामान नहीं रहते...आज राह भूला है एक न एक दिन तो लौट के आएगा ही...राह की ठोकरे और जरूरतें रिश्ते भी साथ ला देती हैं.
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट.
संवेदनशील रचना। बधाई।
ReplyDeleteसमय आ गया है
ReplyDeleteकरो खुद ही
खुद की तलाश
रिश्तों को ढूँढ़ो
अपने आस-पास.
aur hamesha yahi hoti hai sahi pahchaan
बहुत सुन्दर संवेदनशील रचना !
ReplyDeleteप्रेम में शान्ति स्थापिक करने की अद्भुत शक्ति है।
ReplyDelete* स्थापित
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