Friday, November 19, 2010

अजनबी हो तुम

अपने ही शहर में
अजनबी हो तुम,
तुम्हारी बातें ,
तुम्हारे दिन,
तुम्हारी रातें .

क्योंकि
सफलता की चाह में
निकल गए हो
बहुत आगे,
फंस गए हो
प्रतिस्पर्धा के जाल में,
हो गए हो अपनों से दूर
स्वयं को भूलकर .

कैद होकर रह गए हो
अपने ही बनाये
घरोंदे में,
छूट गया है
खुला आसमान,
चाँद-सितारों का साथ
जबसे तुम्हें
अपनी रौशनी का
भरोसा हो गया है .

तभी तो
सब हैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे आस-पास
बस तुम खो गए हो,
तुम्हारा वजूद खो गया है
चाहत की भीड़ में.

समय आ गया है
करो खुद ही
खुद की तलाश
रिश्तों को ढूँढ़ो
अपने आस-पास.


बना लो उसे
अपनी चाहत,
कट जायेगा
जीवन का सफ़र
आराम से .

13 comments:

  1. अजनबी से परिचय अच्छा लगा! सुन्दर कविता !

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  2. बेहद खूबसूरत ख्याल्……………उम्दा रचना।

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  3. ajnabi tum jane pahchane se lagte ho.......:)

    pyari rachna...!

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  4. तभी तो
    सब हैं तुम्हारे साथ,
    तुम्हारे आस-पास
    बस तुम खो गए हो,
    तुम्हारा वजूद खो गया है
    चाहत की भीड़ में.

    सच कहा है और बहुत खूबसूरती के साथ...बहुत अच्छी रचना

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  5. आपका ब्लॉग फॉलो भी कर लिया...

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  6. सच में आज का आदमी आपने आप से तथा अपनों से कटता चला जा रहा है. और अजनबी हो गया है. सुन्दर रचना. बधाई

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  7. सच है हम अपने आप से ही खोते जा रहे हैं चलो एक मुहीम चलायें अपने आपको खोज के बताएं

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  8. सब दिन एक सामान नहीं रहते...आज राह भूला है एक न एक दिन तो लौट के आएगा ही...राह की ठोकरे और जरूरतें रिश्ते भी साथ ला देती हैं.

    सुंदर पोस्ट.

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  9. संवेदनशील रचना। बधाई।

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  10. समय आ गया है
    करो खुद ही
    खुद की तलाश
    रिश्तों को ढूँढ़ो
    अपने आस-पास.
    aur hamesha yahi hoti hai sahi pahchaan

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  11. बहुत सुन्दर संवेदनशील रचना !

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  12. प्रेम में शान्ति स्थापिक करने की अद्भुत शक्ति है।

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