दर्द के काले-घने
बादलों को
अपने सीने में
उमड़ने-घुमड़ने दो,
जमकर बरस लेने दो
मन के सूखे,
सूने आँगन में,
तोड़कर पलकों के बांध
निकल आने दो
आंसुओं की बाढ़,
बहा ले जाने दो
अपने भीतर का
सारा संताप.
मुसीबतों का अँधेरा
आएगा,छाएगा
बार-बार,बार-बार,
लगातार
पर,ठहर नहीं पायेगा,
उसका आशियाना बने
उससे पहले
जला लेना तुम
उम्मीदों के दीप
अपने भीतर,
घर के बाहर
नील गगन में भी
निकल आएगा
चमकता हुआ
दूधिया चाँद,
सूरज के उगने का
करना इन्तजार,
उसके उजाले से
जगमग हो उठेगा
सारा संसार.
अगली सुबह
अपने आँगन में बने
तुलसी के चौरे में
लगा लेना तुम
एक नन्हा सा पौधा
या, फिर लगा लेना
एक नाजुक सी बेल
डालकर
ढीली मिटटी में
एक नन्हा सा बीज,
सींचना उसे प्रतिदिन,
अपने स्नेह-जल से
रखना उसे सिक्त.
देखना उसे निरंतर
बढ़ते हुए,
धीरे-धीरे उगते हुए
पत्ती-पत्ती,डाली-डाली ,
फूलों से सजते,
फलों से लदते हुए
पल-पल,हर-पल
सुबह-दोपहर-शाम.
अपनी आँखों में बसाकर
अपनी यादों में बसा लेना,
पौध से पेड़ तक का सफ़र,
बीज से बेल तक का सफ़र
हरियाली से भर जायेगा
तेरे घर का आँगन,
खुशियों का रैन बसेरा होगा
कोना-कोना तेरा मन,
परायों की भीड़ में
मिल जाएँगे तुम्हें
ढ़ेरों अपने.
सपनों से भर जायेगा
तेरा जीवन.
दुःख की परछाई
नहीं फटकेगी तेरे पास
अपनेपन की छाया में
चैन से कट जायेगा
तेरा वर्तमान,
तेरा आनेवाला कल भी
संवर जायेगा
(छोटी बहन के लिए सस्नेह)
Dil Ka Aashiyana Where Every Relation has Its Relavance,Every Individual has his Place.Humanity Reigns Supreme.
Friday, September 23, 2011
Thursday, September 15, 2011
"बाँध के फाटक उठाओ"
आज
प्रकृति से कर घात
पहाड़ों के हृदय को
दे भारी आघात
बांधकर नदियों को
ऊंची घाटियों में
ढ़ेरों बाँध से
रोक दिया है तुमने
उनका नैसर्गिक प्रवाह.
सपना खुशहाली का देकर
छीन ली
हमारी
हरी-भरी धरती ,
ले लिया है
हमारा
सारा आकाश .
बाँध के आगे
बनाकर
छोटे-छोटे,
अपने-अपने बाँध
नदियों को बंधक बना,
दिखाकर सपने
सुनहरे भविष्य के
घर से भी हमें
बेघर कर गए,
रोजी छिनी,रोटी छिनी ,
खाने के लाले पड़ गए.
आजतक मूंदें रहे हम
अपनी आँखों के पलक
सोचकर कि खो न जाएं
ख्वाब सारे
जो हमें तुमने दिए.
जल तरल है,
वह सरल है
वह सहज ही बढ़ चलेगा,
चाहे कितनी भी हो बाधा
राह अपनी ढूंढ़ लेगा,
बनके निर्झर एक दिन वह
इस धरा को चूम लेगा
अब नहीं
बादल दिखाओ,
अब न बातों में घुमाओ
आ गया है अब समय
तुम बाँध के फाटक उठाओ,
प्रकृति से कर घात
पहाड़ों के हृदय को
दे भारी आघात
बांधकर नदियों को
ऊंची घाटियों में
ढ़ेरों बाँध से
रोक दिया है तुमने
उनका नैसर्गिक प्रवाह.
सपना खुशहाली का देकर
छीन ली
हमारी
हरी-भरी धरती ,
ले लिया है
हमारा
सारा आकाश .
बाँध के आगे
बनाकर
छोटे-छोटे,
अपने-अपने बाँध
नदियों को बंधक बना,
दिखाकर सपने
सुनहरे भविष्य के
घर से भी हमें
बेघर कर गए,
रोजी छिनी,रोटी छिनी ,
खाने के लाले पड़ गए.
आजतक मूंदें रहे हम
अपनी आँखों के पलक
सोचकर कि खो न जाएं
ख्वाब सारे
जो हमें तुमने दिए.
जल तरल है,
वह सरल है
वह सहज ही बढ़ चलेगा,
चाहे कितनी भी हो बाधा
राह अपनी ढूंढ़ लेगा,
बनके निर्झर एक दिन वह
इस धरा को चूम लेगा
अब नहीं
बादल दिखाओ,
अब न बातों में घुमाओ
आ गया है अब समय
तुम बाँध के फाटक उठाओ,
Friday, September 2, 2011
"कैक्टस के फूल"
काँटों-भरी
अपनी हरियाली के संग
जीते रहे जीवन पर्यंत,
भूलकर अपना सारा दर्द
मुस्कुराते रहे
अभावों के शुष्क रेगिस्तान में,
समय के बेरहम थपेड़ों से
बेहाल
करते रहे
बारिश के आने का इन्तजार ,
देखते रहे
एकटक
उम्मीद के बादलों से भरा
सूना आकाश.
सूरज को रखकर
सदा अपने सर-आँखों पर,
उसकी तपती छांव में
सुख के रिमझिम फुहारों का
बिना किये इन्तजार
लगाते रहे बाग़,
श्रम के स्वेद-कणों से
भिगोते रहे जमीन
उगाते रहे फूल
तुम्हारे लिए
बिना मांगे
अपने श्रम का
प्रतिदान.
गुलाब के चाहने वालों
काँटों के बिना
बस फूलों की करो बात,
काँटों की तो हर जगह
एक सी ही है जात.
पर
तुम्हें
कहाँ दिखाई देता है
काँटा अपने गुलाब का,
कहाँ दिखाई देता है
हमारा त्याग.
हमने
स्वेच्छा से चुनी है
अवसरों की उसर जमीन
ताकि गुलाब को मिल जाए
हरा-भरा उपजाऊ मैदान,
फिर भी
कहाँ भाए तुम्हें
काँटों के बीच खिलते
"कैक्टस के फूल"
खुले आसमान के
नीले छप्पर तले
ओढ़कर
चाँद की शीतल चांदनी
सपनों के सिरहाने
रखकर अपना सर
बेफिक्र हो सोते रहे,
मुट्ठी-भर मिटटी में भी
मुस्कुराकर जीते रहे
अपने विश्वास के सहारे
अपनों के साथ
आजतक.
(समाज के उस बड़े हिस्से को सादर समर्पित जो हमें सबकुछ देकर आज भी सर्वथा उपेक्षित है )
अपनी हरियाली के संग
जीते रहे जीवन पर्यंत,
भूलकर अपना सारा दर्द
मुस्कुराते रहे
अभावों के शुष्क रेगिस्तान में,
समय के बेरहम थपेड़ों से
बेहाल
करते रहे
बारिश के आने का इन्तजार ,
देखते रहे
एकटक
उम्मीद के बादलों से भरा
सूना आकाश.
सूरज को रखकर
सदा अपने सर-आँखों पर,
उसकी तपती छांव में
सुख के रिमझिम फुहारों का
बिना किये इन्तजार
लगाते रहे बाग़,
श्रम के स्वेद-कणों से
भिगोते रहे जमीन
उगाते रहे फूल
तुम्हारे लिए
बिना मांगे
अपने श्रम का
प्रतिदान.
गुलाब के चाहने वालों
काँटों के बिना
बस फूलों की करो बात,
काँटों की तो हर जगह
एक सी ही है जात.
पर
तुम्हें
कहाँ दिखाई देता है
काँटा अपने गुलाब का,
कहाँ दिखाई देता है
हमारा त्याग.
हमने
स्वेच्छा से चुनी है
अवसरों की उसर जमीन
ताकि गुलाब को मिल जाए
हरा-भरा उपजाऊ मैदान,
फिर भी
कहाँ भाए तुम्हें
काँटों के बीच खिलते
"कैक्टस के फूल"
खुले आसमान के
नीले छप्पर तले
ओढ़कर
चाँद की शीतल चांदनी
सपनों के सिरहाने
रखकर अपना सर
बेफिक्र हो सोते रहे,
मुट्ठी-भर मिटटी में भी
मुस्कुराकर जीते रहे
अपने विश्वास के सहारे
अपनों के साथ
आजतक.
(समाज के उस बड़े हिस्से को सादर समर्पित जो हमें सबकुछ देकर आज भी सर्वथा उपेक्षित है )
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