Friday, June 25, 2010

तुमसे मेरा श्रृंगार प्रिये

तुमसे ही है जीवन मेरा,
तुम्हीं मेरा आधार प्रिये,
तुमसे ही जीवन-सार मेरा ,
तुम्हीं मेरा श्रृंगार प्रिये.


माथे बिंदी,हाथों कंगन ,
पावों में पायल की रून-झुन,
बालों में फूल भरा गजरा,
अपने में यौवन-भार लिए,
तुमसे ही जीवन-सार मेरा,
तुम्हीं मेरा श्रृंगार प्रिये.


जब चलती तुम इठलाती सी ,
मदमाती सी ,बल खाती सी ,
गंगोत्री बन बहती जाती
मेरा तट अपने साथ लिए,
कर देती तुम उद्धार मेरा,
तुमसे ही मैं साकार प्रिये.

यादों की उम्र नहीं छोटी,
यह मन में बसता जाता है,
हम आगे बढ़ते जाते हैं,
यह पीछे-पीछे आता है
खुशबु की एक बयार लिए,
मेरा जीवन संचार प्रिये

जब-जब जाती हो छोड़ मुझे ,
नज़रों से ओझल रहती हो,
आता है मुझको याद सदा
तेरे संग बीता एक-एक पल,
तुम आ बसती मन-आँगन में
मीठी सी कुछ सौगात लिए.


जब दर्द बहूत बढ़ जाता है,
बैचैनी बढती जाती है,
यादों राह की पकड़ता हूँ ,
तस्वीर तुम्हारी साथ लिए,
तुमसे मरहम की आस लिए.
तुम आ जाओ एकबार प्रिये
तुम ही मेरा उपचार प्रिये .

सपनों में हर-पल साथ तेरा
जीवन तुम बिन अभिशाप बना ,
कुछ कह जाती,कुछ सुन जाती
मन को थोड़ा बहला जाती ,
मेरे गम को सहला जाती,
तुम बिन सूना संसार प्रिये.


तेरे संग बीता एक-एक पल
यादों में चलता जाता है ,
उम्र नहीं कोई उसकी ,
हर-पल मुझको बहलाता है,
मैं आज भी जिए जाता हूँ,
अंतस में विरह की आग लिए,
तुम मेरे मन की शीतलता
तुम मेरी प्राणाधार प्रिये.

सपनों में हर-पल साथ तेरा
हर सोच पे मेरे हावी तुम,
जाते-जाते कुछ कह जाते,
दिल को मेरे समझा जाते ,
तुम बिन रीता जीवन मेरा ,
तुम बिन सूना संसार प्रिये.


जब सामने तुम आ जाती हो
मन-प्राण हरा हो जाता है,
सावन की घटा छा जाती है,
बादल भी बरसने लगते हैं ,
हरियाली छाती जाती है ,
ऐसा है तेरा प्यार प्रिये.


तुमसे मिलने की सोच मात्र
मुझको रोमांचित कर जाती ,
जब तुम मुझको मिल जाती हो,
मन कहता है आभार प्रिये,
तुमसे ही है जीवन मेरा,
तुम्हीं मेरा श्रृंगार प्रिये.

शब्द तो जीवंत है

शब्द श्रृष्टि बीज है
शब्द-शब्द वृक्ष यहाँ,
शब्द-शब्द जीव है,
शब्द का न आदि है
शब्द का न अंत है ,
शब्द तो अनंत है,
शब्द तो जीवंत है.

शब्द ही है जिंदगी
शब्द यहाँ मौत है
शब्द शिशु सा यहाँ
रोज जन्म ले रहा,
पल रहा,बढ़ रहा
और युवा हो रहा.

शब्द से ही शब्द है,
शब्द से ही अर्थ भी,
शब्द अर्थ पा रहा ,
शब्द अर्थ खो रहा,
शब्द ही पुराण है,
शब्द ही कुरान भी.

शब्द से ही रीत यहाँ,
शब्द से ही प्रीत है ,
शब्द कहीं प्रेमराग,
शब्द मनमीत है ,
शब्द-शब्द है निडर ,
शब्द भय से भीत है.

शब्द कहीं धूप है,
शब्द कहीं छांव है,
शब्द यहाँ सांझ है,
शब्द है निशा यहाँ,
शब्द से ही चांदनी ,
शब्द ही चकोर है,
शब्द-शब्द चाँद यहाँ,
शब्द प्रेम-भोर है.

शब्द कहीं है काम,
कहीं ये विश्राम है
शब्द के भी पाँव है,
शब्द के हैं रास्ते
शब्द से ही मंजिलें ,
शब्द उनको पा रहे.

शब्द कहीं कृष्ण है,
शब्द कहीं राम है,
शब्द अयोध्या यहाँ ,
शब्द -गोकुल-धाम है,
शब्द सरयू तट यहाँ,
शब्द यमुन-धार है.
शब्द बह रहे यहाँ ,
शब्द-शब्द तीर है.

शब्द का चलन रुके,
जीवन चक्र सा रुके ,
शब्द को पुकार लो,
शब्द तो है प्रेमराग ,
शब्द-शब्द स्नेह है,
शब्द अनुराग है.

शब्द प्रखर सूर्य है,
शब्द-शब्द रश्मियाँ ,
शब्द धूप जेठ का ,
शब्द सावन की घटा.
आज भी ये सत्य है,
शब्द तो अनंत है,
शब्द का न आदि-अंत,
शब्द तो जीवंत है.

Tuesday, June 15, 2010

टेलेफोन का खंभा

टेलेफोन का खंभा हूँ मैं
चौपाल में अकेले बैठकर
हुक्का गुडगुडाते
दादाजी की तरह
आज सड़क पर खड़ा-खड़ा
शर्म से गड़ा-गड़ा
हसरत-भरी निगाहों से
देखता हूँ उन्हें
जो कल तक
मेरी एक झलक को
तरसते थे.

अजीब से द्वंद्व में फंसा मैं
आज सोच नहीं पा रहा हूँ
अपने अतीत पर इतराऊँ
या फिर अपने वर्तमान
आंसू बहाऊँ.

याद आता है
वो दिन
जब जेठ की दोपहरी में भी
लाइनमेन सीढ़ी लगाता था
और फिर उसपर चढ़कर
नए कनेक्शन लगाता था
और नीचे होती थी
हसरत भरी निगाहों वाले
तमाशबीनों भीड़
तो कैसे मेरा
और
लाइनमेन का सर
गर्व से ऊंचा हो जाता था,

एक समय था
जब मैं
स्वयं पर बहुत इतराया करता था
लाइनमेन के अलावा
कोई और मेरे ऊपर चढ़े
यह बर्दाश्त नहीं कर पाता था.
जब लगता था
नया कनेक्शन
किसी के घर
हाथ जोड़े खड़ा होता था वह
मेरे नीचे ,
कर देते थे उसपर मेहरबानी
लाइनमेन को
उसके घर की घंटी
बजाने देते थे .

कभी हुआ करता था
हमारे सर पर
सफ़ेद ताज
चीनी मिटटी का
पर,हाय रे समय का फेर
हमें बना दिया
बिना डाली का
सूखा हुआ
ठूँठा पेड़.

मैं और मेरा कंप्यूटर

कंप्यूटर के आने के पहले तक
मैं याद रखता था
सबकुछ
यादों के सहारे
ढूंढ़ लेता था मनचाहा .

पर
आज मैं अक्सर भूल जाता हूँ
कभी अपना अतीत
तो कभी अपना वर्तमान,
और कभी ढूंढता हूँ
भविष्य के तार .

जब ढेर सारे "क्यों" में
उलझ कर रह जाता हूँ ,
उपहास का विषय बन जाता हूँ
तब याद आता है कंप्यूटर
जिसमें स्टोर कर दिया है
जानकारियों का भंडार
ताकि समय-समय पर
उसकी सहायता से
कर सकूँ
अपनी भूल सुधार

Thursday, June 10, 2010

महानगर का एक और चेहरा

यहाँ लोग
मरे हुए कुत्तों को
फेंक जाते हैं
खुली सड़क पर
अँधेरी रात में
दिन के उजाले में
सड़ने और दमघोंटू बदबू
फ़ैलाने के लिए .
फैंक कर
लौट जाते हैं
अपने घर
अँधेरे में
अपना मुंह छिपाए
अपनी सड़ी-गली सोच के साथ
जीने के लिए
लेकिन
करें भी
तो क्या करें.
यहाँ का तो दर्शन है,
"जो हो रहा है,होने दो,
जैसा चल रहा है,चलने दो,
कोई मरता है,मरने दो"
यहाँ की परंपरा है
"देखो,सुनो और बढ़ जाओ,
रुको मत,
बढ़ते रहो,चलते रहो ."
अंतस में
कोई हलचल नहीं,
कोई उबाल नही.
न कोई प्रतिक्रिया,
न ही कोई पछतावा.

कुत्ते की लाश
तो सड़-गल जाएगी ,
दिन,हफ्ते,महीनों में .
पर
सडती रहेगी
हमारे भीतर
एक लाश
एक पीढ़ी से
दूसरी पीढ़ी तक,
होता रहेगा
इसका अनवरत विस्तार.

Wednesday, June 9, 2010

रिक्शावाला-एडिटेड

यह शहर
कोलकाता है
जहाँ
चीथड़ों में लिपटा
ढांचे सा खड़ा
एक मरियल आदमी
रोटी के लिए
तांगे की तरह
रिक्शा चलाता है
घोड़ा बनकर .

अपना खून जलाता है,
पसीना बहता है,
उसकी नज़रों के
सामने होता है
उसका गंतव्य,
नज़रों के पीछे होता है
मिलनेवाला "भाड़ा"
जिसके लिए
वह दौड़ता जाता है,
हाँफता जाता है ,
हाँफता जाता है ,
दौड़ता जाता है
लेकिन रुकता नहीं
बस दौड़ता जाता है:
एक मील,दो मील ,दस मील......
मीलों का सफ़र
रोज तय कर जाता है
दो जून के निवाले के लिए.

कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीन पर
लेट जाता है
लोटे में पानी लिए
उसकी पत्नी ,
बेबस सी देखती है
कभी पति का खोखला बदन,
कभी उसकी खाली जेब
कभी चूल्हे को
जिसमें नहीं है आग ,
पेट की आग बुझेगी कैसे?
कातर नज़रों से
बच्चे भी तकते है
फर्श पर पड़े बाप को
जो उनकी नज़रों के सामने
लुढ़का पड़ा है
बगल में लुढ़की पड़ी है
दारू की बोतल-दोनों बिलकुल खाली.




(नयी पंक्तियाँ नए रूप में.)
कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीं पर लोट जाता है.
पत्नी हाथ में पानी लिए
जेब में घुसी
दारू की बोतल देख
धम्म से बैठ जाती है
अपना सिर पकड़ कर .
जेब में टटोलती है पैसे
और फिर
खाली जेब देख
बच्चों के साथ
कभी खाली चूल्हे को देखती है
और कभी खाली बोतल को.

मेरी दिल्ली

अपनी सारी विविधताओं,
अपनी सारी विषमताओं
अपनी बदमिजाजी ,
अपनी सारी बदगुमानी ,
अपनी झोपड़पट्टीयों,
अट्टालिकाओं के साथ
दिल्ली
कब मेरे दिल में
समां गई
पता ही नहीं चला.

इसके बहते नाले,
इसकी सूखी नदियाँ,
इसके भीड़-भरे चौराहे
कब मन को भा गए,
पता ही नहीं चला.

यह भी पता नहीं चला
कब वह मुझमें
और मैं
उसमें समा गया .

Wednesday, June 2, 2010

रिक्शावाला

यह शहर
कोलकाता है
जहाँ
चीथड़ों में लिपटा
ढांचे सा खड़ा
एक मरियल आदमी
रोटी के लिए
तांगे की तरह
रिक्शा चलाता है
घोड़ा बनकर .

अपना खून जलाता है,
पसीना बहता है,
उसकी नज़रों के
सामने होता है
उसका गंतव्य,
नज़रों के पीछे होता है
मिलनेवाला "भाड़ा"
जिसके लिए
वह दौड़ता जाता है,
हाँफता जाता है ,
हाँफता जाता है ,
दौड़ता जाता है
लेकिन रुकता नहीं
बस दौड़ता जाता है:
एक मील,दो मील ,दस मील......
मीलों का सफ़र
रोज तय कर जाता है
दो जून के निवाले के लिए.

कमाकर कर
जब घर आता है
वह बिलकुल बेदम
नजर आता है,
आते ही
जमीन पर लेट जाता है
एक लोटा पानी की आस लिए
फर्श पर ही सो जाता है,
बगल में लुढ़की होती है
दारू की बोतल-दोनों बिलकुल खाली