जब कभी मैं अकेला होता हूँ
तो याद आता है अपना गाँव,
सपनों सा सुंदर गाँव ।
गाँव में थे दादाजी
और थी दाढ़ी वाले बरगद की छावं
ठीक नदी किनारे 
जेठ की दोपहरी में जहाँ बैठा करता था सारा गाँव
गायों ,बैलों और बकरियों के संग 
गर्मी की छुट्टियों में जब-जब जाता गांव 
दादाजी के साथ खेतों में जाने को मचलता ,
कन्धों पर बैठने /बरगद की दाढ़ी पकड़कर लटकने की जिद करता ,
और जेठ की दुपहरी का डर दिखाते दादाजी ।
गांव तो आज भी है ,मैं भी हूँ ,
बस दादाजी नहीं हैं।
आज भी छुट्टियों में जब अपने गाँव जाता हूँ 
वहां "कुछ" खोजता हूँ ,पर खोज नही पाता , 
एक "खालीपन " है जिसे भर नही पाता ।
लेकिन यह "खालीपन"एक अहसास है ,
अपनों के न होने का ,अपनों के संग होने का ।
 फिरभी   कभी-कभी टीस जाती हैं "वो यादें"
यादें जो दादाजी की तरह कन्धों पर बिठाती हैं ,
बरगद की छावं तक ले जाती हैं और 
जेठ की दुपहरी की याद दिलाती हैं आज भी ................
 
