विश्वास नहीं होता कि अब तुम
हमारे बीच नहीं हो ।
ऐसा लगता है
हर बार की तरह इसबार भी मीरा कहेगी ,"बैठिये,भइया नहा रहे हैं "
या कहेगी कि छोटू को लेकर डॉक्टर के पास गए हैं।
भाभी बोलेगी "बैठिये न , आते ही होंगे,
कचहरी में एक केस कि सुनवाई है "।
"सर" तो सारी रामायण ही खोलकर बैठ जाते हैं,
"बीएड कराया, ऍमएससी कराया,लेकिन कुछ करना चाहे तब न"।
मैं उन्हें "चाहने" और "होने" का फर्क नहीं समझा पाता हूँ।
बस बार-बार तुम्हारा चेहरा आंखों के सामने तैर जाता है ,
लगता है किसी भी पल तुम अपने कमरे से बाहर आओगे
और पूछोगे, "राजीव भाई ,कैसे हैं आप ?"
मैं तो ठीक हूँ,पर तुम्हारे बार में क्या सुन रहा हूँ ,
ख़त मिला कि अब तुम नहीं हो।
विश्वास तो नही हुआ ,
लेकिन "सर" की सूनी आँखें ,मीरा का रुंधा गला
और सुरेश का गमजदा चेहरा मुझे झकझोर गया,
यह अहसास दिला गया कि "अब तुम हमारे बीच नहीं हो।"
पर अपने उस दिल का क्या करूँ जो न तो मानता है
और न ही मानना चाहता है कि अब मैं तुमसे कभी नहीं मिल पाउँगा ।
मेरे लिए तुम्हारा "न होना" भी"होने जैसा" है।
मैं जब-जब जाता हूँ ,मन तुम्हें ही खोजता है ,
लगता है वहीँ कहीं घर के आस-पास हो तुम ।
काश मैं अपने मन को समझा पाता ....................