Thursday, January 13, 2011

दूसरा किनारा

एक किनारा छोड़
दूसरे किनारे
आ गया हूँ मैं,
तुझे अपनाकर
किसी को पीछे
छोड़ आया हूँ मैं.

जुड़ गया हूँ
परम्पराओं से,
रश्मों-रिवाजों से
तुम्हें पाकर,

पर,आज भी
पूरी तरह
अतीत से नाता
नहीं तोड़ पाया हूँ मैं.

अब तो बस
तुम हो,मैं हूँ
हम बनकर
और साथ हैं
कुछ भूली-बिसरी बातें
परछाई बनकर .

नहीं कह सकता
क्यों चाहने लगा हूँ
तुम्हें इतना,
समझने लगा हूँ
हिस्सा अपना
धीरे-धीरे,

फ़िरभी
क्यों लगता है
कभी-कभी
मन का कोई कोना
सूना-सूना
उसके बिना.

जब-जब
देखता हूँ
पीछे मुड़कर ,
लगता है
पाकर भी
बहुत कुछ खोया है
मैंने अपना.

पहला सपना,
पहला प्यार
जो आज भी
यादों की लहर बनकर
लौटता है बार-बार,
तुम तक आकर
लौट जाता है,
मेरे भीतर
अजब सी
एक टीस छोड़कर.

सच कहूँ तो अब
मुश्किल लगता है
पल-भर भी जीना
तेरे बिना .

तुम साथ रहो,
मेरे पास रहो
अपना बनकर,
उसे रहने दो
दिल के किसी कोने में
मेरा अतीत,
मेरा सपना बनकर
और
देदो मुझे
मेरे द्वंद्व से मुक्ति.

15 comments:

  1. सच कहूँ तो अब
    मुश्किल लगता है
    पल-भर भी जीना
    तेरे बिना .
    सच में दूसरा किनारा बड़ा खतरनाक होता है ..परन्तु जब व्यक्ति के सामने कोई चारा नहीं बचता तो व्यक्ति को यह किनारा भी अपनाना पड़ता है ...आपकी कविता बहुत भाव पूर्ण है ...इस रचना के लिए आपको बहुत ...बधाई

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  2. जब लगे मेरे बिना न जी सकोगे
    सोच लेना जन्‍म फिर से ले चुके हो
    और मैं हूँ याद बस पिछले जनम की
    जिससे बंधनमुक्‍त कबके हो चुके हो।

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  3. तुम साथ रहो,
    मेरे पास रहो
    अपना बनकर,
    उसे रहने दो
    दिल के किसी कोने में
    मेरा अतीत,
    मेरा सपना बनकर
    और
    देदो मुझे
    मेरे द्वंद्व से मुक्ति.

    har dil ki baat.......:)
    kar di aapne...........hai na!!
    ya fir isko dusre tarah se kahun to 2011 ko kah rahe ho 2010 ko rahne do mera atit, mera sapna bankar...:)

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  4. minakshi pant
    to me

    bahut hi khubsurat bite dino ke yesas liye hue
    padkar bahut accha lga dost

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  5. मेल से पढी थी, शानदार रचना…
    *****************************************************************
    उतरायाण: मकर सक्रांति, लोहड़ी, और पोंगल पर बधाई, धान्य समृद्धि की शुभकामनाएँ॥
    *****************************************************************

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  6. जब-जब
    देखता हूँ
    पीछे मुड़कर ,
    लगता है
    पाकर भी
    बहुत कुछ खोया है
    मैंने अपना.
    jane kyun ...sach bhi hai , pane se adhik khone ka ehsaas rahta hai ... mann ki sthiti ko sakar kar diya hai

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  7. पुरातन और नवीन का द्वन्द, जीवन के हर अंग में।

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  8. तुम साथ रहो,
    मेरे पास रहो
    अपना बनकर,
    उसे रहने दो
    दिल के किसी कोने में
    मेरा अतीत,
    मेरा सपना बनकर
    और
    देदो मुझे
    मेरे द्वंद्व से मुक्ति..

    मन के अंतर्द्वंद को उकेरती बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  9. बहुत अच्छी लगी यह रचना।

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  10. sundar kavita.... kinaron ka badhiya upyog hai .. suvidhanusaar....

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  11. किनारों के इस द्वंद्व से मुक्ति नदी बन कर ही मिल सकती है, जो यों तो दो किनारों को अलग करती जान पड़ती है, लेकिन वस्‍तुतः दोनों किनारे नदी से ही आपस में जुड़ते हैं.

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  12. अंतर्द्वंद को उकेरती बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति..
    आपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"

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  13. जब एक किनारा पकड़ ही लिया है तो बेहतर है पहले किनारे को भूल जाना। या तो दोनो किनारे पर टहलते रहिए.....। मगर जब छोड़ देने की सोची है तो छोड़ देना चाहिए एक किनारा....कुछ पल कुछ क्षण भले ही याद आ जाए....

    रचना अच्छी लगी

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  14. प्रत्येक व्यक्ति के अंतर्मन का द्वंद्व आपने अपनी पंक्तियों में सँजोया है.. लेकिन इस द्वंद्व से मुक्ति.... है क्या??

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  15. काश ऐसे किसे द्वन्द से मुक्ति पा लेना इतना आसान होता...
    बहुत प्यारी रचना...

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