पगडण्डी मन को भाती है ,
क्योंकि यह घर तक जाती है।
नागिन सी बल खाती ,इठलाती पगडण्डी ,
टेढ़ी-मेढ़ी ,आड़ी-तिरछी रेखाएं बनाती,
चलती जाती है,चलती जाती है ।
जीवन के अंतहीन प्रवाह की तरह ,
नदियों से समंदर तक ,
समतली मैदानों से उबड़ -खाबड़ पहाड़ों तक ,
मखमली घासों से कटीले झाड़ों तक ।
फिर भी हर-पल ,हर-क्षण मन को हर्षाती है ,
क्योंकि यह घर तक जाती है।
चकाचौंध से परे, वीरानो में पड़े - पड़े ,
अपना अतीत समेटे , अपना इतिहास बचाती है ,
जीवन को न रुकने का मूक सन्देश सुनाती ,
पथिक के अथक प्रयासों की गवाह बनती ,
राह दिखाती ,
आज भी घरों तक जाती है ।
bahut hi sunder kavita hai. ekdam saral aur jiwan ke karib.
ReplyDeleterajiv jee bahut sunder rachna... iss highway ke jamane mein pagdandi ki baat karna bahut samvednatmak hai... jahan info-way, super highways... consumerism highways... humare life ko target se bhatkate hain... pagdandiyan manjil tak le jaati hain...
ReplyDeleteeak ehsaas bahri rachna ke liye badhai! apni potli mein aur bhi kavitaayen hongi... unhe roshni mein laayen !
ghar se judi jo baatewn hoti hain,we har haal mein dil ke raaston se gujarti hain
ReplyDeleteआपकी संवेदनशीलता सीप के मोती की तरह उज्वल और ओस की बूंदों की तरह निर्मल है...
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